भजन संहिता 50 का यह कहानी एक गहरी आध्यात्मिक शिक्षा और परमेश्वर के न्याय और अनुग्रह के बीच के संतुलन को दर्शाता है। यह कहानी इस्राएल के लोगों और उनके परमेश्वर के बीच के संबंध को गहराई से समझाती है। आइए, हम इस कहानी को विस्तार से जानें।
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### **परमेश्वर का न्याय और अनुग्रह**
एक समय की बात है, जब इस्राएल के लोग सीनै पर्वत के पास डेरे डाले हुए थे। वे परमेश्वर की व्यवस्था और आज्ञाओं के अनुसार जीवन यापन कर रहे थे। उन्होंने परमेश्वर के लिए बलिदान चढ़ाने की प्रथा शुरू की थी, जो उनकी आराधना और आज्ञाकारिता का प्रतीक था। लेकिन धीरे-धीरे, उनके हृदय में एक बदलाव आने लगा। वे बलिदान चढ़ाने को केवल एक रस्म समझने लगे, जबकि उनके जीवन में परमेश्वर की इच्छा और न्याय के प्रति समर्पण की कमी हो गई।
तब परमेश्वर ने अपने भविष्यद्वक्ता आसाप के माध्यम से उनसे बात की। आसाप ने लोगों को इकट्ठा किया और परमेश्वर का संदेश सुनाया। उसने कहा, “हे इस्राएल के लोगो, सुनो! परमेश्वर, सर्वशक्तिमान प्रभु, पूरी पृथ्वी से लेकर पूर्व से पश्चिम तक, बुलाता है। वह स्वर्ग से अपनी महिमा प्रकट करता है। उसकी आवाज़ गर्जन की तरह है, और उसकी उपस्थिति आग की लपटों के समान है।”
लोग चुपचाप सुन रहे थे, क्योंकि परमेश्वर का वचन उनके हृदय को छू रहा था। आसाप ने आगे कहा, “परमेश्वर कहता है, ‘मैं अपने विश्वासयोग्य लोगों को इकट्ठा करूंगा, जिन्होंने मेरे साथ वाचा बाँधी है। मैं उनके बलिदानों को देखूंगा, लेकिन मैं केवल बाहरी रस्मों से संतुष्ट नहीं हूँ। मेरे लिए तुम्हारे हृदय की ईमानदारी और आज्ञाकारिता ही सच्ची आराधना है।'”
लोगों ने सोचा कि वे परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं। वे नियमित रूप से बलिदान चढ़ाते थे, मेम्ने और बैलों को वेदी पर अर्पित करते थे। लेकिन परमेश्वर ने उनके हृदय की जाँच की और देखा कि उनके कर्म केवल दिखावे के लिए हैं। उन्होंने परमेश्वर की आज्ञाओं को भुला दिया था और अपने स्वार्थ में लिप्त हो गए थे।
तब परमेश्वर ने आसाप के माध्यम से कहा, “मैं तुम्हारे बलिदानों को लेकर तुम्हारे सामने आता हूँ, लेकिन मुझे तुम्हारे मेम्नों और बैलों की आवश्यकता नहीं है। सारे जंगल के पशु मेरे हैं, और हज़ारों पहाड़ों के मवेशी भी मेरे अधिकार में हैं। मैं हर पक्षी को जानता हूँ, और पर्वतों के सभी जानवर मेरे हैं। यदि मुझे भूख लगती, तो मैं तुमसे नहीं कहता, क्योंकि संसार और उसकी संपूर्णता मेरी ही है।”
परमेश्वर की यह बात सुनकर लोग हैरान रह गए। उन्होंने सोचा कि वे अपने बलिदानों से परमेश्वर को प्रसन्न कर रहे हैं, लेकिन परमेश्वर ने उन्हें बताया कि उसे उनकी भेंट की आवश्यकता नहीं है। वह तो उनके हृदय की ईमानदारी और आज्ञाकारिता चाहता है।
आसाप ने आगे कहा, “परमेश्वर कहता है, ‘मैं तुम्हारे बलिदानों को स्वीकार नहीं करूंगा, यदि तुम्हारे हाथ अधर्म से भरे हुए हैं। तुम पाप करते हो और फिर मेरे सामने बलिदान चढ़ाते हो, मानो यह सब कुछ ठीक कर देगा। लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ, अपने पापों को छोड़ो और मेरी ओर मुड़ो। मैं तुम्हें बचाना चाहता हूँ, लेकिन तुम्हें अपने मन को बदलना होगा।'”
लोगों ने परमेश्वर के इन वचनों को गंभीरता से लिया। उन्हें एहसास हुआ कि उनकी आराधना केवल बाहरी रस्मों तक सीमित थी, जबकि उनके हृदय में पाप और अहंकार भरा हुआ था। उन्होंने परमेश्वर के सामने अपने पापों को स्वीकार किया और उससे क्षमा माँगी।
परमेश्वर ने उनकी पश्चाताप की प्रार्थना सुनी और उन पर दया की। उसने कहा, “जो कोई मेरी स्तुति करता है, वह मुझे महिमा देता है। जो सीधे मार्ग पर चलता है, मैं उसे अपना उद्धार दिखाऊंगा।”
इस कहानी का सार यह है कि परमेश्वर हमारे बाहरी कर्मों से अधिक हमारे हृदय की ईमानदारी को देखता है। वह चाहता है कि हम उसकी आज्ञाओं का पालन करें और उसके प्रति समर्पित रहें। बलिदान और भेंट उसके लिए तब तक अर्थहीन हैं, जब तक हमारे हृदय में पाप और अहंकार है। परमेश्वर हमें सच्चे पश्चाताप और आज्ञाकारिता के माध्यम से उसके करीब आने के लिए बुलाता है।
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यह कहानी हमें यह सिखाती है कि परमेश्वर के साथ हमारा संबंध केवल रस्मों और बाहरी कर्मों तक सीमित नहीं होना चाहिए। उसे हमारे हृदय की ईमानदारी और समर्पण चाहिए। जब हम उसकी इच्छा के अनुसार चलते हैं और उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, तब ही हम उसकी महिमा और अनुग्रह का अनुभव कर सकते हैं।