2 इतिहास 3 की कहानी को विस्तार से और जीवंत वर्णन के साथ हिंदी में लिखा गया है। यह कहानी सुलैमान के मंदिर के निर्माण की है, जो परमेश्वर के नाम के लिए बनाया गया था। यह कहानी परमेश्वर की महिमा और उसकी इच्छा के प्रति समर्पण को दर्शाती है।
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### सुलैमान का मंदिर: परमेश्वर के नाम का भव्य निवास
यरूशलेम के पवित्र शहर में, मोरिय्याह पर्वत की ऊँचाई पर, एक अद्भुत और पवित्र स्थान था। यह वही स्थान था जहाँ परमेश्वर ने दाऊद के सामने प्रकट होकर उसे अपने लोगों के लिए एक मंदिर बनाने का आदेश दिया था। अब दाऊद का पुत्र सुलैमान, इस्राएल का राजा, अपने पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए तैयार था। परमेश्वर ने सुलैमान को बुद्धि और समझ दी थी, और अब वह उसकी महिमा के लिए एक भव्य मंदिर बनाने वाला था।
सुलैमान ने अपने राज्य के चौथे वर्ष में मंदिर के निर्माण का कार्य शुरू किया। यह वही स्थान था जहाँ परमेश्वर ने दाऊद को दिखाया था, और यहाँ ओर्नान का खलिहान था, जहाँ दाऊद ने परमेश्वर के लिए बलिदान चढ़ाया था। सुलैमान ने इस स्थान को चुना क्योंकि यह परमेश्वर की इच्छा का प्रतीक था।
मंदिर का निर्माण शुरू होने से पहले, सुलैमान ने देश के सबसे कुशल कारीगरों, बढ़ई, पत्थर तराशने वालों, और सोने-चाँदी के काम करने वालों को इकट्ठा किया। उसने लबानोन से देवदार के वृक्ष मँगवाए, जो मजबूत और सुगंधित थे। ये लकड़ियाँ मंदिर की दीवारों, छत, और फर्श के लिए इस्तेमाल की जानी थीं। पत्थरों को पहले से ही तराशकर लाया गया था ताकि निर्माण स्थल पर कोई हथौड़े की आवाज न सुनाई दे। यह परमेश्वर के प्रति सम्मान का प्रतीक था।
मंदिर का डिज़ाइन अत्यंत भव्य और विस्तृत था। इसकी लंबाई साठ हाथ (लगभग 27 मीटर), चौड़ाई बीस हाथ (लगभग 9 मीटर), और ऊँचाई तीस हाथ (लगभग 13.5 मीटर) थी। मंदिर के सामने एक बड़ा प्रवेश द्वार बनाया गया, जो बीस हाथ चौड़ा था। इस द्वार को सोने से मढ़ा गया था, जो परमेश्वर की महिमा और पवित्रता को दर्शाता था।
मंदिर के अंदरूनी हिस्से को सोने से सजाया गया था। दीवारों, छत, और दरवाजों पर सोने की पट्टियाँ लगाई गईं। यहाँ तक कि फर्श भी सोने से मढ़ा गया था। सुलैमान ने मंदिर के अंदर दो विशाल करूबों की मूर्तियाँ बनवाईं। ये करूब परमेश्वर के सिंहासन के रक्षक थे, और उनके पंखों का फैलाव बीस हाथ था। एक करूब का एक पंख दीवार को छूता था, और दूसरा पंख दूसरे करूब के पंख को। ये करूब सोने से बने थे और उनके चेहरे पर गंभीरता और भक्ति का भाव था।
मंदिर के सबसे पवित्र स्थान, जिसे “परम पवित्र स्थान” कहा जाता था, को एक मोटे पर्दे से अलग किया गया था। यह पर्दा नीले, बैंगनी, और लाल रंग के महीन सूत से बना था और उस पर करूबों की आकृतियाँ बनी हुई थीं। यह स्थान केवल महायाजक के लिए था, जो वर्ष में एक बार परमेश्वर के सामने प्रायश्चित के लिए प्रवेश करता था।
मंदिर के बाहर एक विशाल वेदी बनाई गई, जहाँ बलिदान चढ़ाए जाने थे। यह वेदी पीतल से बनी थी और इसका आकार बहुत बड़ा था। इसके अलावा, एक विशाल कुंड भी बनाया गया, जिसे “ढालुआ सागर” कहा जाता था। यह कुंड बारह बैलों की मूर्तियों पर टिका हुआ था, और इसका उपयोग याजकों के शुद्धिकरण के लिए किया जाता था।
सुलैमान ने मंदिर के चारों ओर एक बड़ा आँगन भी बनवाया, जो पत्थर की दीवारों से घिरा हुआ था। इस आँगन में लोग इकट्ठा होकर परमेश्वर की आराधना करते थे। मंदिर के निर्माण में सात साल लगे, और जब यह पूरा हुआ, तो यह इतना भव्य और सुंदर था कि पूरे संसार में इसकी तुलना नहीं थी।
सुलैमान ने मंदिर के पूरा होने पर एक महान उत्सव मनाया। उसने परमेश्वर के सामने हज़ारों बलिदान चढ़ाए और प्रार्थना की कि परमेश्वर इस स्थान पर अपनी उपस्थिति बनाए रखे। परमेश्वर ने सुलैमान की प्रार्थना सुनी और आग के साथ स्वर्ग से उत्तर दिया, जिसने बलिदान को भस्म कर दिया। यह देखकर सभी लोग डर गए और परमेश्वर की महिमा की स्तुति करने लगे।
इस प्रकार, सुलैमान का मंदिर परमेश्वर के नाम के लिए एक भव्य और पवित्र स्थान बन गया। यह मंदिर न केवल इस्राएल के लोगों के लिए आराधना का केंद्र था, बल्कि यह परमेश्वर की महिमा और उसकी प्रतिज्ञाओं का प्रतीक भी था। सुलैमान ने परमेश्वर की आज्ञा का पालन किया और उसकी महिमा के लिए एक ऐसा स्थान बनाया जो सदियों तक याद किया जाता रहेगा।
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यह कहानी परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसकी महिमा के लिए एक भव्य मंदिर के निर्माण की है। यह हमें सिखाती है कि परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए हमें अपने सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने चाहिए और उसकी महिमा को सर्वोच्च स्थान देना चाहिए।