मिस्र में याकूब के परिवार का आगमन और उनकी वृद्धि (निर्गमन 1)
यह कहानी उस समय की है जब याकूब और उसके बारह पुत्र, जो इस्राएल के बारह गोत्रों के पिता बने, मिस्र देश में आकर बस गए। याकूब का परिवार, जिसमें उसके पुत्र, पुत्रियाँ, पोते-पोतियाँ और अन्य संबंधी शामिल थे, कुल मिलाकर सत्तर लोग थे। वे यूसुफ के निमंत्रण पर मिस्र आए थे, क्योंकि यूसुफ, जो याकूब का पुत्र था, मिस्र में एक बड़े पद पर आसीन था। उसने अपने परिवार को अकाल के समय में बचाने के लिए उन्हें मिस्र बुलाया था।
समय बीतता गया और याकूब का परिवार मिस्र में फलता-फूलता रहा। वे गोशेन नामक क्षेत्र में बस गए, जो मिस्र के उपजाऊ इलाकों में से एक था। वहाँ उन्हें भरपूर चारागाह और पानी मिलता था, जिससे उनके पशुधन और परिवार दोनों तेजी से बढ़ने लगे। परमेश्वर ने उन पर अपनी कृपा बरसाई, और वे बहुत ही संपन्न हो गए।
कई पीढ़ियों बाद, याकूब के वंशज, जो अब इस्राएली कहलाते थे, इतने अधिक हो गए कि पूरा गोशेन क्षेत्र उनसे भर गया। उनकी संख्या इतनी बढ़ गई कि मिस्र के लोग उनसे डरने लगे। मिस्र के लोगों ने देखा कि इस्राएली उनसे कहीं अधिक शक्तिशाली और संख्या में बड़े होते जा रहे हैं। उन्हें लगा कि अगर कभी युद्ध होगा, तो ये इस्राएली उनके विरुद्ध हो सकते हैं और देश छोड़कर चले जाएँगे।
इस डर के कारण, मिस्र के नए राजा, जिसे फिरौन कहा जाता था, ने इस्राएलियों के साथ कठोर व्यवहार करने का निर्णय लिया। उसने कहा, “देखो, इस्राएली हमसे अधिक और बलवान होते जा रहे हैं। हमें उन पर काबू पाने के लिए कुछ करना होगा, नहीं तो वे हमारे लिए खतरा बन जाएँगे।”
फिरौन ने इस्राएलियों पर भारी कर लगा दिया और उन्हें बेगार में लगा दिया। उन्हें मिस्र के लिए भवन, शहर और गोदाम बनाने के लिए मजबूर किया गया। उन पर इतना काम लाद दिया गया कि उनका जीवन दुःख और पीड़ा से भर गया। मिस्र के लोग उन पर अत्याचार करने लगे और उन्हें गुलामों की तरह काम करने के लिए मजबूर किया।
लेकिन परमेश्वर की कृपा इस्राएलियों पर बनी रही। जितना अधिक उन पर अत्याचार होता, उतना ही वे बढ़ते और फैलते गए। मिस्र के लोग उनसे और भी अधिक डरने लगे। फिरौन ने देखा कि उसकी योजना काम नहीं कर रही है, तो उसने और भी कठोर कदम उठाने का निर्णय लिया।
फिरौन ने दो मिस्र की धाय माताओं, जिनके नाम शिफ्रा और पूआ थे, को बुलाया। ये धाय माताएँ इस्राएली स्त्रियों को प्रसव के समय सहायता देती थीं। फिरौन ने उनसे कहा, “जब तुम इस्राएली स्त्रियों को प्रसव में सहायता दो, तो यदि लड़का हो तो उसे मार डालना, परन्तु यदि लड़की हो तो उसे जीवित रहने देना।”
लेकिन शिफ्रा और पूआ परमेश्वर से डरती थीं। उन्होंने फिरौन के आदेश की अवहेलना की और इस्राएली बच्चों को जीवित रहने दिया। जब फिरौन को इस बात का पता चला, तो उसने उन्हें फिर से बुलाया और पूछा, “तुमने ऐसा क्यों किया? तुमने लड़कों को क्यों जीवित रहने दिया?”
शिफ्रा और पूआ ने उत्तर दिया, “इस्राएली स्त्रियाँ मिस्र की स्त्रियों की तरह नहीं हैं। वे बहुत ही बलवान हैं और हमारे पहुँचने से पहले ही प्रसव कर लेती हैं। इसलिए हम उनके बच्चों को मार नहीं पाते।”
परमेश्वर ने शिफ्रा और पूआ की भक्ति और साहस को देखा और उन पर अपनी कृपा बरसाई। उन्होंने उन्हें आशीर्वाद दिया और उनके परिवारों को बढ़ाया। लेकिन फिरौन ने अपनी योजना को नहीं छोड़ा। उसने एक नया आदेश जारी किया कि हर इस्राएली लड़के को नील नदी में फेंक दिया जाए, ताकि वे डूबकर मर जाएँ। केवल लड़कियों को जीवित रहने दिया जाए।
इस प्रकार, इस्राएलियों पर अत्याचार और भी बढ़ गया। उनका जीवन दुःख और पीड़ा से भर गया। लेकिन परमेश्वर ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उनके साथ था और उनकी पीड़ा को देख रहा था। उसने उनके लिए एक योजना बनाई थी, जो समय आने पर पूरी होने वाली थी।
इस प्रकार, निर्गमन की पुस्तक का पहला अध्याय हमें इस्राएलियों के दुःख और पीड़ा की कहानी सुनाता है, लेकिन साथ ही यह हमें परमेश्वर की सामर्थ्य और उसकी योजना की ओर भी इशारा करता है। परमेश्वर अपने लोगों को कभी नहीं छोड़ता, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों। वह हमेशा उनके साथ रहता है और उन्हें मुक्ति दिलाता है।