**कहानी: अय्यूब की प्रार्थना और परमेश्वर की महिमा**
एक समय की बात है, जब अय्यूब नामक एक धर्मी व्यक्ति अपने जीवन में बड़े क्लेश से गुज़र रहा था। उसके सारे बच्चे मर चुके थे, उसकी संपत्ति नष्ट हो गई थी, और उसका शरीर दर्दनाक फोड़ों से भर गया था। फिर भी, अय्यूब ने परमेश्वर के प्रति अपनी निष्ठा नहीं छोड़ी। एक दिन, जब उसके मित्र उसके दुखों का कारण ढूंढ रहे थे, अय्यूब ने अपने हृदय की गहराई से परमेश्वर के सामने प्रार्थना की।
अय्यूब ने कहा, “मैं सचमुच जानता हूँ कि यह सच है—कोई मनुष्य परमेश्वर के सामने निर्दोष नहीं ठहर सकता। यदि कोई उससे वाद-विवाद करना चाहे, तो भी हज़ारों बातों में से एक का भी उत्तर नहीं दे सकता। परमेश्वर बुद्धिमान और सामर्थी है, उसका विरोध करके कौन सफल हो सकता है?”
अय्यूब ने आकाश की ओर देखा और उसकी आँखों में परमेश्वर की महानता का भाव उमड़ आया। उसने सोचा, “वह पहाड़ों को हिला देता है, और उन्हें बिना किसी चेतावनी के उलट देता है। वह पृथ्वी को उसके स्थान से हटा देता है, और उसके खंभे काँप उठते हैं। वह सूर्य को आज्ञा देता है, और वह नहीं उगता। वह तारों को मुहरबंद कर देता है।”
अय्यूब ने महसूस किया कि परमेश्वर की सामर्थ्य अथाह है। “वह अकेले आकाश को फैलाता है और समुद्र की लहरों पर चलता है। वह सप्तऋषि और ओरायन, मृगशीर्ष और दक्षिण के नक्षत्रों को बनाता है। वह ऐसे महान काम करता है जिन्हें हम नहीं समझ सकते, और ऐसे अद्भुत कार्य जिनकी गिनती नहीं हो सकती।”
फिर अय्यूब ने अपने आप को याद दिलाया, “यदि वह मेरे पास से गुज़रे, तो मैं उसे नहीं देख पाऊँगा। यदि वह आगे बढ़ जाए, तो मैं उसे नहीं पहचान पाऊँगा। यदि वह किसी को पकड़ ले, तो कौन उसे रोक सकता है? कौन उससे पूछ सकता है, ‘तू क्या करता है?'”
अय्यूब का हृदय दुख से भर गया क्योंकि उसने महसूस किया कि परमेश्वर के सामने उसकी स्थिति कितनी नगण्य है। “मैं निर्दोष हूँ, फिर भी मेरा मुख मुझे दोषी ठहराता है। मैं निष्कलंक हूँ, फिर भी वह मुझे दोषी मानता है। यदि मैं कहूँ, ‘मैं अपनी निर्दोषता सिद्ध करूँगा,’ तो भी वह मुझे दोषी ठहराएगा।”
अय्यूब ने देखा कि चाहे वह धर्मी हो या दुष्ट, परमेश्वर की दृष्टि में सब एक समान हैं। “यदि कोई आपदा अचानक आ जाए, तो वह निर्दोष और दोषी दोनों का उपहास करता है। जब दुष्ट लोगों का अत्याचार बढ़ता है, तो वह उन्हें भी छोड़ देता है।”
अय्यूब ने अपने आप को असहाय पाया। “यदि मैं अपने हाथ धोकर निर्दोषता प्रकट करूँ, तो भी तू मुझे इसी कीचड़ में डुबो देगा। मेरे वस्त्र भी मुझे घृणा दिलाएँगे। क्योंकि वह मनुष्य नहीं है कि मैं उसे उत्तर दूँ, और न हम एक साथ न्यायालय में आ सकते हैं।”
अंत में, अय्यूब ने परमेश्वर से विनती की, “हम दोनों के बीच कोई मध्यस्थ नहीं है जो अपना हाथ हम दोनों पर रख सके। वह मुझे अपने दण्डदण्ड से दूर करे और उसका भय मुझे न डराए। तब मैं बोलूँगा और उससे न डरूँगा, परन्तु अब ऐसा नहीं है।”
इस प्रकार, अय्यूब ने परमेश्वर की सर्वशक्तिमानता और अपनी नश्वरता को स्वीकार किया। उसने जान लिया कि मनुष्य की बुद्धि परमेश्वर के समक्ष कुछ नहीं है, और सच्ची प्रार्थना वही है जो उसकी महिमा को स्वीकार करती है।
**समाप्त।**