**भजन संहिता 95 की कहानी: आनंदित स्वर से परमेश्वर की स्तुति**
एक समय की बात है, जब सूर्योदय के सुनहरे किरणों ने पहाड़ों को चूमा और ओस की बूंदें मैदानों में जगमगा उठीं। एक छोटा-सा गाँव, जो जैतून के पेड़ों से घिरा हुआ था, सुबह की शांति में डूबा हुआ था। वहाँ के लोग प्रतिदिन सुबह उठकर परमेश्वर का धन्यवाद करते थे, क्योंकि वे जानते थे कि वही उनका चट्टान और उद्धारकर्ता है।
उस दिन, गाँव के बुजुर्ग यिर्मयाह ने सभा बुलाई और लोगों को इकट्ठा होने के लिए कहा। वृद्ध यिर्मयाह के चेहरे पर एक दिव्य आभा थी, और उसकी आँखों में परमेश्वर के प्रेम की गहराई झलक रही थी। जब सभी लोग एकत्रित हुए, तो उसने मधुर स्वर में गाना शुरू किया:
**”आओ, हम परमेश्वर के सामने जयजयकार के गीत गाएँ! चलो, उस चट्टान के सामने आनंदित होकर गाएँ जो हमारा उद्धार करता है!”**
लोगों ने भी उसके साथ स्वर मिलाया। स्त्रियाँ तालियाँ बजाने लगीं, बच्चे नाचने लगे, और पुरुषों ने ऊँचे स्वर में परमेश्वर की महिमा गाई। वातावरण में आनंद और भक्ति की एक लहर दौड़ गई, मानो स्वर्ग के दूत भी उनके साथ गा रहे हों।
यिर्मयाह ने अपना हाथ उठाकर सबको शांत किया और कहा, **”हमारा प्रभु महान राजा है! समस्त देवताओं से ऊपर वही सर्वोच्च है। गहराईयों के रहस्य उसकी मुट्ठी में हैं, और पहाड़ों की चोटियाँ उसकी हैं। समुद्र उसका है, क्योंकि उसी ने उसे बनाया, और सूखी भूमि भी उसके हाथों की रचना है!”**
भीड़ में एक युवक ने प्रश्न किया, **”लेकिन हम उसकी आराधना क्यों करें? हमारे जीवन में इतने संघर्ष हैं!”**
यिर्मयाह ने दयालु नज़रों से उसे देखा और उत्तर दिया, **”क्योंकि वह हमारा परमेश्वर है, और हम उसकी भेड़ें हैं, उसकी चरागाह की मेमने। आज, यदि तुम उसकी आवाज़ सुनो, तो अपने हृदय को कठोर मत करो, जैसा कि मरीबा और मसा के जंगल में हमारे पूर्वजों ने किया था।”**
लोगों ने ध्यान से सुना क्योंकि यिर्मयाह ने उन्हें पुराने समय की कहानी सुनाई। **”जब हमारे पूर्वज मिस्र से निकले, तो परमेश्वर ने उन्हें चमत्कारों से बचाया। लेकिन जंगल में, उन्होंने उसकी परीक्षा ली और कहा, ‘क्या परमेश्वर हमारे साथ है?’ इसलिए, प्रभु ने कहा, ‘ये लोग अपने हृदय में भटक गए हैं, और वे मेरे मार्गों को नहीं जानते। इसलिए मैंने शपथ खाई कि वे मेरी विश्रामस्थली में प्रवेश नहीं करेंगे।'”**
यह सुनकर लोगों के मन में भय और आदर उत्पन्न हुआ। यिर्मयाह ने उन्हें समझाया, **”इसलिए, आज हमें चुनना है कि हम उसकी आवाज़ सुनें और उसके मार्ग पर चलें। वह हमारा चरवाहा है, और हम उसकी भेड़ें। यदि हम उसकी आज्ञा मानेंगे, तो वह हमें शांति और आशीष से भर देगा।”**
धीरे-धीरे, सूर्य आकाश में ऊँचा उठ गया, और लोगों ने फिर से गाना शुरू किया। इस बार उनके स्वरों में नम्रता और समर्पण था। वे जान गए थे कि सच्ची आराधना केवल गीत गाने में नहीं, बल्कि हृदय की गहराई से परमेश्वर की आज्ञा मानने में है।
और इस प्रकार, उस दिन, गाँव के लोगों ने न केवल अपने होठों से, बल्कि अपने जीवन से भी परमेश्वर की स्तुति की। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे उसकी आवाज़ सुनेंगे और उसके मार्ग से कभी नहीं भटकेंगे, क्योंकि वही उनका परमेश्वर था, और वे उसकी प्रजा थे।
**”आओ, हम उसके सामने दण्डवत करें और अपने सृजनहार के समक्ष घुटने टेकें, क्योंकि यहोवा हमारा परमेश्वर है!”**
और इस तरह, भजन 95 का सन्देश उनके हृदय में बस गया, और वे सच्चे भक्ति के साथ आगे बढ़े।