पवित्र बाइबल

मरिबा की चट्टान: विश्वास और आज्ञाकारिता की परीक्षा

**कहानी: मरिबा की चट्टान (गिनती 20)**

वह समय था जब इस्राएली जंगल में भटक रहे थे, परमेश्वर के मार्गदर्शन की प्रतीक्षा करते हुए। मूसा और हारून अपने लोगों के साथ कादेश नामक स्थान पर डेरा डाले हुए थे। सूरज की तपती किरणें रेत पर चमक रही थीं, और हवा में धूल के बादल मंडरा रहे थे। लोगों के चेहरों पर थकान और निराशा के भाव साफ झलक रहे थे।

तभी एक बड़ी समस्या उठ खड़ी हुई। जल की कमी हो गई। लोगों की जीभें सूखने लगीं, बच्चे रोने लगे, और पशु बेचैन होकर इधर-उधर भटकने लगे। यह कोई पहली बार नहीं था जब इस्राएलियों को प्यास सताए, परन्तु इस बार उनका धैर्य टूट चुका था।

लोगों का एक समूह मूसा और हारून के पास जा पहुँचा। उनकी आँखों में क्रोध था, और आवाज़ें तीखी हो चुकी थीं।

“काश हम भी यहोवा की दृष्टि में मर गए होते!” एक व्यक्ति चिल्लाया।

“तुम हमें इस जंगल में लाए हो, ताकि हम और हमारे पशु मर जाएँ!” दूसरे ने गुस्से से मूसा की ओर इशारा किया।

“हमें क्यों नहीं छोड़ दिया कनान देश में प्रवेश करने? यह स्थान तो अनाज, अंगूर और अनार से भरपूर है, परन्तु यहाँ तो पीने को पानी भी नहीं!”

मूसा और हारून ने उनकी शिकायतें सुनीं। वे जानते थे कि लोगों का विश्वास डगमगा रहा था। वे परमेश्वर के सामने झुके और उसकी सहायता की याचना की।

तब यहोवा की महिमा उनके सामने प्रकट हुई। उसकी उपस्थिति इतनी पवित्र थी कि मूसा और हारून ने अपने चेहरे ढक लिए। परमेश्वर ने मूसा से कहा:

“तू लोगों के सामने इस चट्टान के पास जा, और अपना डंडा लेकर अपने भाई हारून के साथ इकट्ठे हो। तू चट्टान से बात करना, और वह अपना जल बहा देगी। इस प्रकार तू लोगों और उनके पशुओं के लिए जल निकाल सकेगा।”

मूसा ने वैसा ही किया। उसने अपने हाथ में डंडा उठाया और लोगों को इकट्ठा किया। चट्टान उनके सामने विशाल और दृढ़ खड़ी थी, जैसे कोई अटल प्रहरी। परन्तु मूसा के हृदय में क्रोध भरा हुआ था। लोगों के अविश्वास और विद्रोह ने उसे झुंझला दिया था।

“सुनो, हे विद्रोहियों!” मूसा ने गरजते हुए कहा, “क्या हम इस चट्टान से तुम्हारे लिए जल निकाल दें?”

और फिर, परमेश्वर के आदेश के विपरीत, उसने अपना डंडा उठाकर चट्टान पर दो बार जोर से प्रहार किया।

तभी एक अद्भुत चमत्कार हुआ। चट्टान से जल की धाराएँ फूट पड़ीं! शीतल, स्वच्छ जल बहने लगा, जैसे कोई नदी अपनी गोद खोल दे। लोगों ने आनन्दित होकर जल पिया, और उनके पशुओं ने भी अपनी प्यास बुझाई।

परन्तु यहोवा मूसा और हारून से प्रसन्न नहीं था। उसने उनसे कहा:

“क्योंकि तुम ने मेरी बात का विश्वास नहीं किया, और इस्राएलियों के सामने मेरी पवित्रता को प्रकट नहीं किया, इसलिए तुम इस समाज को उस देश में नहीं ले जा सकोगे, जो मैंने उन्हें दिया है।”

मूसा और हारून ने परमेश्वर के वचन सुने, और उनका हृदय भारी हो गया। वे जानते थे कि उन्होंने परमेश्वर की आज्ञा का पूरी तरह पालन नहीं किया था। चट्टान से बात करने के बजाय, उन्होंने उसे मारा था, और अपने क्रोध में लोगों को “विद्रोही” कहकर पुकारा था।

इस घटना का स्थान “मरिबा” (यानी “विवाद”) कहलाया, क्योंकि वहाँ इस्राएलियों ने यहोवा से झगड़ा किया था। परन्तु यह भी एक चेतावनी थी कि परमेश्वर के सेवकों को उसकी आज्ञाओं का सावधानी से पालन करना चाहिए।

मूसा ने अपनी भूल को समझा, परन्तु अब बहुत देर हो चुकी थी। वादा किए गए देश में प्रवेश करने का अवसर उससे छिन चुका था। फिर भी, वह परमेश्वर की सेवा करता रहा, और इस्राएल को आगे बढ़ने का मार्ग दिखाता रहा।

इस प्रकार, मरिबा की चट्टान इस्राएल के इतिहास में एक यादगार सबक बन गई—न केवल विश्वास की परीक्षा के रूप में, बल्कि इस बात का भी कि परमेश्वर की पवित्रता को कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए।

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