**कहानी: अय्यूब का प्रश्न और परमेश्वर की योजना**
एक समय की बात है, जब अय्यूब अपने दुखों के बीच बैठा हुआ था। उसका शरीर पीड़ा से जर्जर हो चुका था, उसके मित्र उसे दोष दे रहे थे, और उसका मन परमेश्वर से प्रश्न करने लगा था। उसने अपने हृदय की गहराइयों से एक विचार उठाया, जो उसके होठों पर आ गया।
अय्यूब ने अपने मित्रों से कहा, **”सुनो, मेरी बात को ध्यान से सुनो। मुझे थोड़ा सांत्वना दो। मैं बोलूंगा, और फिर तुम मेरी हंसी उड़ाना। क्या मेरी शिकायत मनुष्य से है? यदि ऐसा है, तो मुझे चिंता क्यों नहीं होनी चाहिए?”**
उसने आकाश की ओर देखा, मानो वह सीधे परमेश्वर से बात कर रहा हो, और बोला, **”मुझे देखो और आश्चर्यचकित हो जाओ, हाथ मुँह पर रख लो! जब मैं सोचता हूँ, तो मैं घबरा जाता हूँ, और मेरा शरीर काँप उठता है।”**
फिर उसने एक गहरी सांस ली और अपने मन के भावों को शब्द दिए: **”क्यों दुष्ट जीवित रहते हैं? क्यों वे बूढ़े होते हैं, और उनकी शक्ति बढ़ती जाती है? उनके बच्चे उनके सामने सुरक्षित रहते हैं, और उनके वंशज उनकी आँखों के सामने बढ़ते हैं। उनके घरों में शांति होती है, कोई डर नहीं होता, परमेश्वर का कोड़ा उन पर नहीं पड़ता।”**
अय्यूब ने विस्तार से बताया कि कैसे दुष्ट लोग सुखी जीवन जीते हैं: **”उनके बैल गर्भवती होती हैं और निष्फल नहीं होतीं। उनकी गायें बछड़े जनती हैं और नहीं गिरतीं। वे अपने बच्चों को भेड़ों की तरह बाहर खेलते देखते हैं, और उनके लड़के नाचते-गाते हैं। वे मृदंग और वीणा की धुन पर आनंदित होते हैं, और सुरा पीकर मस्त रहते हैं। वे अपने दिन सुख से बिताते हैं, और एक पल में अधोलोक को उतर जाते हैं।”**
फिर उसने अपने मित्रों से पूछा, **”फिर भी वे परमेश्वर से कहते हैं, ‘हमसे दूर रह! हम तेरे मार्गों को जानना नहीं चाहते। सर्वशक्तिमान कौन है कि हम उसकी सेवा करें? उससे प्रार्थना करने से हमें क्या लाभ?'”**
अय्यूब ने जोर देकर कहा, **”देखो, उनकी भलाई उनके हाथ में नहीं है! दुष्टों की योजना मुझ से दूर रहे। कितनी बार दुष्टों का दीपक बुझता है? कितनी बार उन पर विपत्ति आती है? कितनी बार परमेश्वर क्रोध में उन्हें दण्ड देता है?”**
वह चुप हो गया, फिर धीरे से बोला, **”तुम कहते हो कि परमेश्वर पिता के अधर्म का दण्ड पुत्रों को देता है? उसे स्वयं दण्ड भुगतना चाहिए, अपने ही पापों का एहसास करना चाहिए! क्या ऊँचे परमेश्वर के लिए यह उचित है कि वह मनुष्य के पुत्र को उसके अपने पापों के लिए नहीं, बल्कि उसके पिता के पापों के लिए दण्ड दे?”**
अय्यूब ने अपने हाथ उठाए और कहा, **”मनुष्य क्या जानता है? वह कुछ ही दिन जीता है, फिर मर जाता है। क्या कोई परमेश्वर के न्याय को समझ सकता है? एक मनुष्य समृद्धि में मरता है, पूर्ण शांति में, उसकी टोकरियाँ भरी हुईं होती हैं। दूसरा दुःख में मरता है, कभी अच्छा नहीं खाता। फिर भी दोनों एक साथ धूल में मिल जाते हैं, और कीड़े उन्हें ढँक लेते हैं।”**
अंत में, अय्यूब ने अपने मित्रों को चुनौती दी: **”तुम मुझे व्यर्थ की बातें सिखाते हो! तुम्हारे उत्तर केवल छल हैं! क्या तुम परमेश्वर के न्याय को समझ सकते हो? क्या तुम उसकी योजना को जानते हो? एक ही तूफान में धर्मी और दुष्ट दोनों मरते हैं। क्या यह परमेश्वर की ओर से नहीं होता?”**
इस प्रकार, अय्यूब ने अपने हृदय की पीड़ा व्यक्त की। वह जानता था कि मनुष्य की समझ सीमित है, और परमेश्वर की योजना गहरी और अथाह है। उसने विश्वास किया कि एक दिन सब कुछ स्पष्ट होगा, और परमेश्वर का न्याय पूर्णतः धर्मी होगा।