**एक समय की बात है, जब यरूशलेम के एक बुद्धिमान राजा सुलैमान ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में परमेश्वर के सामने गहरी चिंतन किया। वह अपने महल की छत पर खड़ा था, जहाँ से उसकी नज़र सारे नगर और उसकी भव्यता पर पड़ रही थी। सूर्य अस्त हो रहा था, और आकाश में सुनहरी और लाल रंग की छटा बिखरी हुई थी। हवा में एक उदासी थी, जैसे कि समय की गति ने राजा के हृदय को छू लिया हो।**
**सुलैमान ने गहरी सांस ली और अपने मन में विचार किया, “सब कुछ व्यर्थ है, पूर्णतः व्यर्थ! मनुष्य के सारे परिश्रम, सारे संघर्ष, सारी उपलब्धियाँ—क्या वास्तव में इनका कोई स्थायी मूल्य है?” उसकी आँखों के सामने अपना पूरा जीवन चलचित्र की तरह गुज़र गया। उसने अपनी महान बुद्धि, अपार धन, और असंख्य भोग-विलास का स्मरण किया, परंतु अब वह सब उसे खोखला लग रहा था।**
**वह धीरे-धीरे बोला, “सूरज निकलता है, फिर अस्त होता है, और फिर उसी स्थान पर लौटकर फिर से उदय होता है। हवा दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है, फिर चक्कर काटकर वापस लौट आती है। नदियाँ सागर में बहती हैं, किन्तु सागर कभी नहीं भरता। यह सब कुछ थकाऊ है, इतना थकाऊ कि मनुष्य इसे व्यक्त भी नहीं कर सकता। आँखें देखकर कभी नहीं तृप्त होतीं, और कान सुनकर भी संतुष्ट नहीं होते।”**
**राजा ने अपने हाथों को फैलाया और आकाश की ओर देखते हुए कहा, “जो कुछ हुआ है, वही आगे भी होगा। जो कुछ किया गया है, वही फिर किया जाएगा। संसार में कोई नई बात नहीं है। क्या कोई ऐसी वस्तु है जिसके विषय में कहा जा सके, ‘देखो, यह नया है’? वह तो बहुत पहले से हमारे पूर्वजों के समय में भी विद्यमान थी। पुरानी पीढ़ियाँ चली गईं, और नई पीढ़ियाँ आती हैं, किन्तु पृथ्वी सदा एक सी ही बनी रहती है।”**
**उसकी आवाज़ में एक गहरा दर्द था, जैसे कि उसने जीवन के रहस्य को समझ लिया हो, परंतु उस रहस्य ने उसे शांति के बजाय विषाद से भर दिया हो। वह बुद्धिमानों के ज्ञान और मूर्खों के अज्ञान के बारे में सोचने लगा। “मैंने अपने हृदय में यह जानने का प्रयास किया कि ज्ञान और मूर्खता क्या है, परंतु मैंने पाया कि यह भी वायु को पकड़ने के समान है। क्योंकि अधिक ज्ञान से अधिक दुःख होता है, और जो ज्ञान बढ़ाता है, वह पीड़ा भी बढ़ाता है।”**
**राजा सुलैमान ने अपने सिंहासन पर बैठकर असंख्य लोगों को न्याय दिया था, उसने हज़ारों नीतिवचन लिखे थे, और उसकी बुद्धि की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। किन्तु आज उसे लग रहा था कि यह सब कुछ एक छलावा था। “मैंने अपने मन से कहा, ‘आओ, मैं तुम्हें आनन्द से परखूँ, तुम्हें सुख भोगने दूँ।’ किन्तु देखो, यह भी व्यर्थ था। हँसी पागलपन है, और आनन्द व्यर्थ।”**
**उसने अपने महल के बाग़ में टहलते हुए सोचा, “मैंने बड़े-बड़े कार्य किए, अपने लिए महल बनवाए, दाख की बारियाँ लगवाईं, बाग़ और उपवन तैयार करवाए, और सरोवर खुदवाए। मैंने दास-दासियाँ इकट्ठे किए, और घर में सोना-चाँदी, राजाओं और प्रान्तों के खजाने एकत्र किए। मैंने गायकों और गायिकाओं को रखा, और मनुष्यों के सभी भोगों को भोगा। किन्तु जब मैंने उन सब कर्मों को देखा जो मेरे हाथों ने किए थे, तो देखा कि सब कुछ व्यर्थ है, वायु को पकड़ने के समान।”**
**अंत में, सुलैमान ने अपना सिर झुकाया और प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैंने समझ लिया है कि तेरे बिना सब कुछ खोखला है। मनुष्य का परिश्रम, उसकी महत्वाकांक्षाएँ, उसकी सफलताएँ—यदि वह तेरी इच्छा को नहीं जानता, तो सब कुछ व्यर्थ है। केवल तेरी आराधना ही सच्चा जीवन है।”**
**और इस प्रकार, राजा सुलैमान ने उस गहन सत्य को पहचाना जो आज भी हमें सिखाता है कि बिना परमेश्वर के, जीवन की सारी भव्यता और सारे प्रयास निरर्थक हैं। केवल उसी में हमारा हृदय शांति पाता है।**