**एकांत में खोज: सुलैमान का आत्मचिंतन**
राजा सुलैमान यरूशलेम के महल की छत पर खड़ा था। सूर्य अस्त हो रहा था, और आकाश में नारंगी और सुनहरी रंगों की छटा बिखर रही थी। उसकी आँखों के सामने उसका विशाल राज्य फैला हुआ था—सुन्दर उद्यान, विशाल भंडार, और असंख्य सेवक। फिर भी, उसके हृदय में एक गहरी खालीपन थी। वह मन ही मन सोचने लगा, “मैंने इस संसार में सब कुछ पा लिया है, फिर भी मेरा मन अशांत क्यों है?”
उसने अपने जीवन के सभी प्रयासों को याद किया। उसने अपने लिए महल बनवाए थे, अद्भुत बाग़ लगवाए थे जहाँ हर प्रकार के फलों के पेड़ लहलहाते थे। उसने झीलें खुदवाईं, जिनमें नीला जल चमकता था, और उनके किनारे सुगंधित फूल खिलते थे। उसने सेवक और दासियाँ रखीं, जो उसकी हर इच्छा को पूरा करते थे। उसके पास इतना धन था कि चाँदी को उसने साधारण पत्थरों की तरह गिन लिया था।
संगीत और कला में भी उसने अपनी आत्मा को तृप्त करने का प्रयास किया। उसके दरबार में सर्वश्रेष्ठ गायक और वादक थे, जो मधुर स्वरों से उसका मनोरंजन करते थे। उसने असंख्य गीतों की रचना की, जिन्हें सुनकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे। फिर भी, जब रात के एकांत में वह अपने शयनकक्ष में लेटता, तो उसे लगता कि यह सब व्यर्थ है—एक हवा के पीछे भागने के समान।
वह हँसी और आनंद की खोज में भी निकला। उसने दावतें दीं, मदिरा पी, और मनोरंजन के हर साधन को आजमाया। उसने सोचा, “शायद सुख ही जीवन का उद्देश्य है।” किन्तु जब वह नशे की हालत में भी अपने विचारों से भाग नहीं पाया, तो उसने महसूस किया कि यह भी एक छलावा है।
तब उसने ज्ञान और बुद्धि को अपनाया। उसने प्रकृति का अध्ययन किया, पशु-पक्षियों के व्यवहार को समझा, और मनुष्य के हृदय की गहराइयों में उतरा। उसकी बुद्धि इतनी प्रखर थी कि दूर-दूर से लोग उसकी समझ को सुनने आते थे। परन्तु जितना अधिक उसने जाना, उतना ही उसे एहसास हुआ कि ज्ञान भी दुःख लाता है। अधिक समझने का अर्थ था अधिक पीड़ा को जानना।
एक दिन, जब वह अपने उद्यान में टहल रहा था, उसने देखा कि एक साधारण मजदूर अपने परिवार के साथ हँस रहा था। उसके पास न तो धन था, न ही राजसी वैभव, फिर भी उसकी आँखों में संतोष था। सुलैमान ने अपने आप से पूछा, “क्या यह साधारण व्यक्ति मुझसे अधिक धन्य है?”
अंत में, वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मनुष्य के सारे परिश्रम, सारी उपलब्धियाँ, और सारे सुख—यदि परमेश्वर के भय के बिना हैं—तो सब व्यर्थ हैं। उसने लिखा, **”परमेश्वर को याद रखना ही मनुष्य का कर्तव्य है, क्योंकि वही अंत में सब कुछ न्याय करेगा।”**
उसने महसूस किया कि सच्चा आनंद और सार्थकता केवल परमेश्वर के साथ संगति में ही मिल सकती है। बाहरी वस्तुएँ और उपलब्धियाँ क्षणभंगुर हैं, परन्तु परमेश्वर का साथ शाश्वत है। इस ज्ञान के साथ, उसके हृदय की अशांति शांत हुई, और उसने अपना जीवन फिर से परमेश्वर की इच्छा के अनुसार जीने का निश्चय किया।
**सबक:** सुलैमान की कहानी हमें सिखाती है कि संसार के सभी सुख और उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं यदि वे परमेश्वर के साथ जुड़े नहीं हैं। सच्चा संतोष और आनंद केवल उसी में मिलता है।