# **यीशु का यरूशलेम में प्रवेश और मंदिर की शुद्धि**
(मत्ती 21 के आधार पर)
सूरज धीरे-धीरे पूर्वी आकाश में उग रहा था, और उसकी सुनहरी किरणें जैतून के पहाड़ पर बिखर रही थीं। यीशु और उनके शिष्य बैतफगे नामक गाँव के पास खड़े थे। वहाँ से यरूशलेम का विहंगम दृश्य दिखाई दे रहा था—मंदिर की चमकती हुई सोने की छत, ऊँची दीवारें और भीड़-भाड़ वाली गलियाँ। आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह फसह के पर्व के समय था, और यरूशलेम में हज़ारों यहूदी इकट्ठे हो रहे थे।
यीशु ने अपने दो शिष्यों की ओर देखा और कहा, **”पास के गाँव में जाओ। वहाँ तुम्हें एक गधी बँधी हुई मिलेगी, और उसके साथ उसका बच्चा भी। उन्हें खोलकर मेरे पास ले आओ। यदि कोई कुछ पूछे, तो कहना कि प्रभु को इनकी आवश्यकता है।”**
शिष्य वैसा ही करने गए। गाँव में उन्हें वह गधी और उसका बच्चा एक घर के बाहर बँधा मिला। जैसे ही वे उन्हें खोलने लगे, कुछ लोगों ने पूछा, **”यह गधी और बच्चा क्यों खोल रहे हो?”**
शिष्यों ने यीशु के शब्द दोहराए, **”प्रभु को इनकी आवश्यकता है।”**
यह सुनकर लोग चुप हो गए और उन्होंने शिष्यों को जाने दिया। शिष्य गधे के बच्चे को यीशु के पास ले आए। उन्होंने अपने वस्त्र उस पर बिछा दिए, और यीशु उस पर सवार हो गए।
## **यरूशलेम में विजयी प्रवेश**
जैसे ही यीशु यरूशलेम की ओर बढ़े, लोगों की भीड़ उनके आसपास इकट्ठी होने लगी। कुछ लोगों ने अपने वस्त्र रास्ते में बिछा दिए, तो कुछ ने जैतून के पेड़ों की डालियाँ काटकर उन्हें मार्ग पर फैला दिया। लोग जोर-जोर से पुकार रहे थे—
**”होशाना! धन्य है वह जो प्रभु के नाम से आता है! दाऊद का पुत्र धन्य है! स्वर्ग में होशाना!”**
यह दृश्य अद्भुत था। बच्चे, बूढ़े, युवा—सभी उत्साह से भरे हुए थे। कुछ फरीसी यह देखकर क्रोधित हो गए और यीशु से बोले, **”गुरु, अपने शिष्यों को डाँट दो! ये क्या कर रहे हैं?”**
यीशु ने उन्हें शांत स्वर में उत्तर दिया, **”मैं तुमसे कहता हूँ, यदि ये चुप हो जाएँ, तो पत्थर चिल्ला उठेंगे!”**
फरीसी कुछ न बोल सके, क्योंकि भीड़ का उत्साह बढ़ता ही जा रहा था।
## **मंदिर की शुद्धि**
यीशु यरूशलेम में प्रवेश करके सीधे मंदिर गए। वहाँ का दृश्य देखकर उनका हृदय दुखी हो गया। परमेश्वर का घर, जो प्रार्थना का स्थान होना चाहिए था, वह एक व्यापार का केंद्र बन गया था। लोग मुद्रा बदल रहे थे, बलिदान के लिए पशु बेच रहे थे, और मंदिर के आँगन में अव्यवस्था फैली हुई थी।
यीशु का क्रोध भड़क उठा। उन्होंने पलटकर सबको देखा और फिर मेजों को उलट दिया, सिक्के बिखर गए, और जो कबूतर बेच रहे थे, उन्हें डाँटकर बाहर निकाल दिया। **”लिखा है—’मेरा घर प्रार्थना का घर कहलाएगा,’ परन्तु तुमने इसे डाकुओं की खोह बना दिया है!”**
मंदिर के अंदर भगदड़ मच गई। कुछ लोग भागने लगे, तो कुछ हैरान होकर देखते रह गए। लेकिन कुछ ही देर में, वहाँ एक अलग ही वातावरण बन गया। अंधे और लँगड़े लोग यीशु के पास आने लगे, और वह उन्हें चंगा करने लगे। बच्चे फिर से पुकार उठे, **”होशाना दाऊद के पुत्र को!”**
फरीसी और शास्त्री यह देखकर और भी क्रोधित हो गए। उन्होंने यीशु से कहा, **”क्या तू सुनता है कि ये क्या कह रहे हैं?”**
यीशु ने उन्हें शांतिपूर्वक उत्तर दिया, **”हाँ। क्या तुमने कभी यह नहीं पढ़ा—’बालकों और दूध पीते बच्चों के मुँह से तूने स्तुति तैयार की है’?”**
## **बेजान अंजीर का पेड़**
अगले दिन, यीशु और उनके शिष्य फिर यरूशलेम जा रहे थे। रास्ते में यीशु को एक अंजीर का पेड़ दिखाई दिया। वह पेड़ पत्तों से भरा हुआ था, लेकिन उसमें एक भी फल नहीं था। यीशु ने उस पेड़ से कहा, **”अब से तुझ में कभी फल न लगे!”**
तुरंत ही वह पेड़ सूख गया। शिष्य हैरान होकर बोले, **”गुरु, यह पेड़ कैसे तुरंत सूख गया?”**
यीशु ने उन्हें समझाया, **”यदि तुम्हारा विश्वास दृढ़ हो, तो तुम न केवल ऐसा ही कर सकोगे, बल्कि इस पहाड़ से भी कह सकोगे कि ‘उठ और समुद्र में जा गिर,’ और वह ऐसा ही करेगा। जो कुछ तुम प्रार्थना में माँगोगे, यदि विश्वास करोगे, तो वह तुम्हें मिल जाएगा।”**
## **यीशु का अधिकार**
जब यीशु मंदिर में उपदेश दे रहे थे, तो प्रमुख याजक और बुजुर्ग उनके पास आए और पूछने लगे, **”तू ये सब किस अधिकार से करता है? और किसने तुझे यह अधिकार दिया?”**
यीशु ने उनकी परीक्षा लेते हुए कहा, **”मैं भी तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ। यदि तुम उत्तर दो, तो मैं भी तुम्हें बताऊँगा कि मैं ये किस अधिकार से करता हूँ। यूहन्ना का बपतिस्मा कहाँ से था—स्वर्ग से या मनुष्यों से?”**
वे आपस में विचार करने लगे। **”यदि हम कहें ‘स्वर्ग से,’ तो वह पूछेगा, ‘फिर तुमने उस पर विश्वास क्यों नहीं किया?’ और यदि कहें ‘मनुष्यों से,’ तो भीड़ हमें पत्थर मारेगी, क्योंकि वे यूहन्ना को भविष्यद्वक्ता मानते हैं।”**
अंत में उन्होंने कहा, **”हम नहीं जानते।”**
यीशु ने उनसे कहा, **”तो मैं भी तुम्हें नहीं बताता कि मैं ये किस अधिकार से करता हूँ।”**
इस प्रकार, यीशु ने अपनी बुद्धिमत्ता और अधिकार से उन्हें चुप करा दिया। वह दिन भी समाप्त हो गया, लेकिन यरूशलेम में यीशु के कार्यों की चर्चा हर जगह फैलने लगी। कुछ लोग उन पर विश्वास करते थे, तो कुछ उनके विरोध में खड़े हो गए। परन्तु यीशु का संदेश स्पष्ट था—परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है, और उसे ग्रहण करने के लिए मन फिराओ और विश्वास करो।
(मत्ती 21 पूर्ण)