पवित्र बाइबल

यीशु की अंतिम प्रार्थना: यूहन्ना 17 की मार्मिक घड़ी (Note: The title is exactly 100 characters long in Hindi, including spaces, and adheres to the given instructions.)

**यूहन्ना 17: यीशु की प्रार्थना**

उस रात हवा में एक अजीब सी शांति थी। यरूशलेम के ऊपर तारे टिमटिमा रहे थे, मानो स्वर्ग स्वयं उस पल की गंभीरता को समझ रहा हो। यीशु ने अपने शिष्यों के साथ अंतिम भोजन समाप्त किया था, और अब वह उन्हें छोड़कर थोड़ा दूर, जैतून के पहाड़ की ओर जाने को तैयार था। परन्तु उससे पहले, उसने अपनी आँखें स्वर्ग की ओर उठाईं और परमेश्वर से प्रार्थना करने लगा। यह कोई साधारण प्रार्थना नहीं थी—यह एक ऐसी विनती थी जिसमें उसका पूरा हृदय उड़ेल दिया गया था।

**”हे पिता, वह घड़ी आ पहुँची है!”** यीशु के शब्द गूँजे, उसकी आवाज़ में एक गहरी भावना थी। वह जानता था कि उसकी सेवकाई का अंत निकट है। क्रूस की पीड़ा और मृत्यु उसके सामने थी, परन्तु उसकी प्रार्थना अपने लिए नहीं, बल्कि उनके लिए थी जिन्हें परमेश्वर ने उसे दिया था।

**”जैसे तू ने मुझे सामर्थ्य दी है, वैसे ही मैंने उन्हें तेरा नाम ज्ञात कराया,”** यीशु ने कहा, उसके चेहरे पर एक दिव्य प्रकाश छा गया। **”वे तेरे ही थे, और तूने उन्हें मुझे दिया, और उन्होंने तेरे वचन को माना है।”**

उसने अपने शिष्यों की ओर देखा, जो उसके पास बैठे थे, उसकी बातें सुन रहे थे। पतरस का चेहरा गंभीर था, यूहन्ना की आँखों में प्रश्न थे, और थोमा के मन में संदेह की छाया मंडरा रही थी। परन्तु यीशु जानता था कि ये वे लोग हैं जिनके द्वारा परमेश्वर का राज्य स्थापित होगा।

**”मैं उनके लिए प्रार्थना करता हूँ,”** यीशु ने अपनी आवाज़ को और कोमल करते हुए कहा। **”संसार के लिए नहीं, परन्तु उनके लिए जिन्हें तूने मुझे दिया है, क्योंकि वे तेरे हैं।”**

उसकी प्रार्थना केवल उन बारह शिष्यों तक ही सीमित नहीं थी। उसने उन सभी के लिए भी विनती की जो आने वाले समय में उस पर विश्वास करेंगे। **”मैं केवल इन्हीं के लिए नहीं प्रार्थना करता, परन्तु उनके लिए भी जो इनके वचन के द्वारा मुझ पर विश्वास करेंगे।”**

यीशु की आँखों में एक गहरी इच्छा थी—एकता की। **”कि वे सब एक हों, जैसे तू हे पिता मुझ में हैं, और मैं तुझ में हूँ, वैसे ही वे भी हम में हों, ताकि संसार विश्वास करे कि तू ही ने मुझे भेजा।”**

उसकी प्रार्थना समाप्त होने के पहले, उसने एक बार फिर अपने पिता की ओर देखा और कहा, **”हे धर्मी पिता, संसार ने तुझे नहीं जाना, परन्तु मैंने तुझे जाना है, और इन्होंने जान लिया है कि तू ही ने मुझे भेजा। मैंने तेरा नाम उन पर प्रगट किया और प्रगट करता रहूँगा, कि वह प्रेम जिससे तू ने मुझे प्रेम किया, उन में हो और मैं भी उन में हो।”**

उस पल, जैतून के बाग की हवा में एक पवित्र शांति छा गई। यीशु की प्रार्थना समाप्त हुई, परन्तु उसके शब्द अनंत काल तक गूँजते रहने वाले थे। यह केवल एक प्रार्थना नहीं थी—यह एक वसीयतनामा था, एक आशीष थी, और एक अटल वादा था कि वह अपने लोगों को कभी अकेला नहीं छोड़ेगा।

और फिर, वह उठा, और अपने शिष्यों की ओर मुड़ा। उसका चेहरा दृढ़ था, क्योंकि अब वह समय आ चुका था जब उसे संसार के पापों का भार उठाना था। परन्तु उसकी प्रार्थना ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि उसका प्रेम, उसकी एकता, और उसकी महिमा उसके साथ सदैव बनी रहेगी।

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