**1 थिस्सलुनीकियों 2 पर आधारित बाइबल कहानी**
**शीर्षक: “सच्ची सेवकाई: पौलुस की थिस्सलुनीका में गवाही”**
थिस्सलुनीका नगर की हवा में उत्साह और उथल-पुथल का मिश्रण था। यहूदी आराधनालय के पास की गलियों में पौलुस, सीलास और तिमुथियुस की आवाज़ें गूँज रही थीं। वे यहाँ परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाने आए थे, परंतु उनके संदेश ने कुछ लोगों के हृदयों में आग लगा दी थी, तो कुछ को क्रोध से भर दिया था।
### **पौलुस का साहस और निस्वार्थ प्रेम**
पौलुस ने अपने शब्दों को सावधानी से चुना। वह जानता था कि थिस्सलुनीका के लोगों के सामने खड़ा होना कोई साधारण बात नहीं थी। उसने पहले फिलिप्पी में कष्ट झेले थे, जहाँ उसे कोड़े खाने पड़े और कारावास में डाला गया था। फिर भी, वह डरा नहीं। उसका विश्वास था कि परमेश्वर ने उसे यह सुसमाचार सुनाने के लिए बुलाया था, और वह मनुष्यों को प्रसन्न करने के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए बोलता था।
उसने थिस्सलुनीकियों से कहा, **”हमने तुम्हारे बीच में धोखा नहीं दिया, न अशुद्ध मन से आए, और न कपट से। परन्तु जैसा परमेश्वर ने हमें योग्य समझकर सुसमाचार सौंपा, वैसे ही हम बोलते हैं, मनुष्यों को नहीं, परन्तु परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए जो हमारे मनों को जाँचता है।”**
### **एक माता-पिता की तरह सेवा**
पौलुस ने केवल शब्दों से ही नहीं, बल्कि अपने जीवन से भी उन्हें सुसमाचार का उदाहरण दिखाया। वह और उसके साथी उनके बीच में नम्रता और प्रेम के साथ रहे, जैसे कोई माता अपने बच्चों की देखभाल करती है।
**”हम तुम्हारे बीच में कोमलता से रहे, जैसे कोई धाय माता अपने बालकों को पालती है,”** पौलुस ने उन्हें याद दिलाया। **”हम तुमसे इतना प्रेम करते थे कि न केवल परमेश्वर का सुसमाचार ही तुम्हें देना चाहते थे, वरन अपने प्राण भी; क्योंकि तुम हमारे लिए अति प्रिय हो गए थे।”**
दिन-रात मेहनत करके वे अपने हाथों से काम करते थे, ताकि किसी पर बोझ न बनें। उन्होंने थिस्सलुनीका के विश्वासियों को न केवल आत्मिक रूप से बल्कि शारीरिक रूप से भी सहारा दिया।
### **विरोध और अत्याचार के बावजूद विश्वास**
लेकिन सुसमाचार का प्रचार हमेशा आसान नहीं था। यहूदियों में से कुछ कट्टर लोगों ने उनका विरोध किया और नगर के अधिकारियों के कान भर दिए। झूठे आरोप लगाकर उन्हें शहर से निकाल दिया गया। फिर भी, थिस्सलुनीका के विश्वासियों ने पौलुस के शब्दों को ग्रहण किया—न केवल मनुष्यों के वचन के रूप में, बल्कि परमेश्वर के वचन के रूप में, जो उनके हृदयों में कार्य कर रहा था।
पौलुस ने उन्हें लिखा, **”तुम ने हमारे और प्रभु के सताए जाने के समय हमारी सहाई की, और सुसमाचार को बड़े क्लेश में भी आनन्द से ग्रहण किया।”**
### **पौलुस की गहरी चिंता और प्रार्थना**
जब पौलुस को थिस्सलुनीका छोड़ना पड़ा, तो उसका मन वहाँ के भाइयों-बहनों के लिए व्याकुल हो उठा। क्या शैतान ने उनके श्रम को व्यर्थ कर दिया था? क्या उनका विश्वास डगमगा गया था? यह सोचकर उसने तिमुथियुस को वापस भेजा, ताकि वह उन्हें दृढ़ कर सके।
जब तिमुथियुस ने लौटकर उनके विश्वास और प्रेम की अच्छी खबर सुनाई, तो पौलुस का हृदय आनन्द से भर गया। **”अब हम जीवित हैं, यदि तुम प्रभु में स्थिर हो,”** उसने लिखा। उसकी प्रार्थना थी कि वह फिर से उनसे मिल सके और उनके विश्वास की कमियों को पूरा कर सके।
### **प्रभु की वापसी की आशा**
अंत में, पौलुस ने उन्हें प्रभु यीशु की वापसी की महिमा की याद दिलाई। **”क्योंकि तुम ही हमारे गौरव और आनन्द हो। जब प्रभु यीशु अपने सभी पवित्र लोगों के साथ आएंगे, तब क्या तुम हमारे सामने खड़े नहीं होंगे?”**
थिस्सलुनीका के विश्वासियों ने पौलुस के शब्दों को अपने हृदय में संजोया। उन्होंने सीखा कि सच्ची सेवकाई केवल शब्दों में नहीं, बल्कि प्रेम, त्याग और सच्चाई में होती है। और इस तरह, थिस्सलुनीका की कलीसिया एक ज्वलंत उदाहरण बन गई—जो न केवल मकेदुनिया और अखाया में, बल्कि हर जगह प्रभु के वचन की गवाही देती रही।
**समाप्त।**