**1 कुरिन्थियों 9 पर आधारित बाइबल कहानी: “प्रेरित पौलुस का त्याग और सेवा”**
एक समय की बात है, जब प्रेरित पौलुस कुरिन्थुस की कलीसिया को एक पत्र लिख रहे थे। उनका हृदय भावनाओं से भरा हुआ था, क्योंकि वह उन मसीही विश्वासियों को यह समझाना चाहते थे कि सेवकाई के लिए त्याग और समर्पण कितना आवश्यक है। उन्होंने अपनी लेखनी उठाई और प्रभु के आत्मा के निर्देशन में शब्द लिखे:
**”क्या मैं स्वतंत्र नहीं हूँ? क्या मैं प्रेरित नहीं हूँ? क्या मैंने यीशु मसीह हमारे प्रभु को नहीं देखा है? क्या तुम मेरे कार्य के फल नहीं हो?”**
पौलुस ने गहरी सांस ली। उन्हें याद आया कि कैसे उन्होंने कुरिन्थुस में अथक परिश्रम किया था, लोगों को सुसमाचार सुनाया था, और उनके विश्वास के लिए संघर्ष किया था। फिर भी, कुछ लोग उनके प्रेरित होने पर सवाल उठा रहे थे। वह जानते थे कि उन्हें अपनी सेवकाई का बचाव करना होगा, न कि अपने लिए, बल्कि सत्य के लिए।
उन्होंने आगे लिखा, **”यदि दूसरों को तुम पर अधिकार है, तो क्या हमें नहीं? क्या हम खाने-पीने का अधिकार नहीं रखते? क्या हम एक विश्वासिनी बहन को ब्याह कर नहीं ले जा सकते, जैसे अन्य प्रेरित और प्रभु के भाई करते हैं?”**
पौलुस के मन में उन सभी यात्राओं की यादें ताजा हो गईं, जब उन्होंने अपने हाथों से कपड़े बुनकर और तम्बू सिलकर अपनी जरूरतें पूरी की थीं। वह चाहते तो कलीसिया से सहायता ले सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया, ताकि किसी को कोई आपत्ति न हो। उनका उद्देश्य सुसमाचार में किसी भी बाधा को दूर करना था।
उनकी कलम ने जोश से लिखा, **”क्या तुम नहीं जानते कि जो मन्दिर का काम करते हैं, वे मन्दिर से खाते हैं? जो वेदी की सेवा करते हैं, वे वेदी के साथ भागी होते हैं? इसी प्रकार प्रभु ने ठहराया है कि जो सुसमाचार सुनाते हैं, वे सुसमाचार से जीविका पाएँ।”**
पौलुस ने अपनी आँखें बंद कर लीं और प्रार्थना की। वह जानते थे कि उन्होंने इन अधिकारों का उपयोग नहीं किया, परंतु उन्होंने यह भी समझाया कि यह अधिकार उनके पास थे। उन्होंने लिखा, **”परन्तु मैंने इनमें से किसी बात का उपयोग नहीं किया। मैं यह नहीं चाहता कि मेरे लिए यह अधिकार छीन लिया जाए। मेरी इच्छा तो सुसमाचार सुनाने की है, और मैं बिना किसी मूल्य के इसे देने के लिए तैयार हूँ।”**
उनके शब्दों में एक गहरी दृढ़ता थी। वह जानते थे कि सेवकाई का अर्थ केवल अधिकारों का दावा करना नहीं, बल्कि मसीह के प्रेम में दूसरों के लिए स्वयं को समर्पित करना है। उन्होंने उदाहरण देते हुए लिखा, **”क्या तुम नहीं जानते कि दौड़ने वाले सब दौड़ते तो हैं, परन्तु इनाम एक ही पाता है? तुम ऐसे दौड़ो कि पा सको।”**
पौलुस ने एक एथलीट की तस्वीर खींची, जो मुकुट पाने के लिए सब कुछ त्याग देता है। उसी प्रकार, एक मसीही सेवक को भी आत्म-संयम रखना चाहिए। उन्होंने लिखा, **”इसलिए मैं दिशाहीन नहीं दौड़ता, मैं हवा में मुक्के नहीं मारता। बल्कि मैं अपने शरीर को वश में करता हूँ और उसे दास बनाता हूँ, ऐसा न हो कि दूसरों को प्रचार करके मैं स्वयं अयोग्य ठहरूँ।”**
पौलुस का हृदय भर आया। वह चाहते थे कि कुरिन्थुस के विश्वासी समझें कि सुसमाचार की सेवा केवल बाहरी कर्म नहीं, बल्कि एक पूर्ण समर्पण है। उन्होंने अपना पत्र समाप्त करते हुए लिखा, **”हे मेरे भाइयो, तुम्हारे लिए मैं यह सब कुछ सहता हूँ, ताकि औरों को उद्धार मिले। मैं सब कुछ सहने को तैयार हूँ, ताकि किसी तरह कुछ लोगों का उद्धार हो सके।”**
इस प्रकार, पौलुस ने अपने जीवन के उदाहरण से सिखाया कि सच्ची सेवकाई स्वार्थरहित प्रेम, त्याग और आत्म-अनुशासन की माँग करती है। उनकी ये बातें आज भी हर मसीही विश्वासी के लिए प्रेरणा हैं, कि वे अपने जीवन को पूरी तरह से प्रभु की इच्छा के आगे समर्पित कर दें।