**निर्गमन 36: भवन के लिए भेंट और निर्माण**
परमेश्वर ने मूसा को सीनै पर्वत पर बुलाया था और उन्हें विस्तार से निर्देश दिए थे कि कैसे पवित्र निवास, यानी मिलापवाले तम्बू, का निर्माण किया जाए। मूसा ने इन सभी आज्ञाओं को इस्राएलियों के सामने रखा, और उन्होंने परमेश्वर के इस पवित्र स्थान के निर्माण के लिए अपने मन से भेंट चढ़ाने का निश्चय किया।
### **लोगों की उदारता**
सुबह-सुबह, जब सूर्य की किरणें मरुभूमि की रेत पर चमक रही थीं, इस्राएल के पुरुष और स्त्रियाँ अपने-अपने तम्बुओं से बाहर आए। उनके हाथों में विभिन्न प्रकार की भेंटें थीं—सोने-चाँदी के आभूषण, नीले, बैंजनी और लाल कपड़े, बछड़ों की खाल, सुगन्धित लकड़ी, तेल, और मणियाँ। हर कोई अपनी इच्छा से, अपने मन की उदारता के साथ, परमेश्वर के भवन के लिए कुछ न कुछ लाया।
कुछ लोगों ने अपने गहने दान किए, जिन्हें वे मिस्र से निकलते समय लाए थे। कुछ महिलाओं ने अपने हाथों से बुने हुए बारीक कपड़े दिए। कुछ ने अपने पशुओं की खालें अर्पित कीं। यहाँ तक कि जिनके पास भौतिक संपत्ति कम थी, वे भी अपनी श्रमशक्ति देने के लिए तैयार थे। सारा समुदाय एकजुट होकर परमेश्वर के कार्य में लग गया।
### **कुशल कारीगरों का चयन**
मूसा ने देखा कि लोगों का उत्साह और भेंट की मात्रा दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। तब उन्होंने बसलल का पुत्र ओहोलीआब और हूर का पुत्र बसलेल को बुलाया। परमेश्वर ने इन दोनों को विशेष कुशलता और बुद्धि दी थी ताकि वे सोने, चाँदी, काँसे का काम कर सकें, नक्काशी कर सकें, और बुनाई का कार्य संभाल सकें।
बसलेल और ओहोलीआब ने सभी स्वेच्छाकर्मियों को इकट्ठा किया और उन्हें विभिन्न कार्य सौंपे। कुछ लोग तम्बू के पट्टों को बुनने लगे, कुछ ने खम्भों को तैयार किया, कुछ ने सोने के पत्रों को हथौड़ों से पीटकर पतला किया। हर कोई अपने-अपने काम में लग गया।
### **भेंट की बहुलता**
कुछ ही दिनों में, भेंट इतनी अधिक हो गई कि कारीगरों ने मूसा के पास जाकर कहा, “लोग बहुत अधिक भेंट ला रहे हैं! हमें जितनी सामग्री चाहिए, उससे कहीं अधिक मिल रही है।”
मूसा ने पूरे शिविर में यह घोषणा करवाई: “न तो पुरुष और न ही स्त्रियाँ अब भेंट लेकर न आएँ। हमारे पास पर्याप्त है।” इस प्रकार, लोगों ने भेंट देना बंद कर दिया, क्योंकि जो कुछ भी मिलापवाले तम्बू के निर्माण के लिए आवश्यक था, वह पहले ही प्राप्त हो चुका था।
### **मिलापवाले तम्बू का निर्माण**
अब बसलेल, ओहोलीआब और उनके सहयोगियों ने पूरे मन से काम शुरू किया। उन्होंने सबसे पहले तम्बू के पट्टे बनाए—बारीक सनी के कपड़े से, जिसमें नीले, बैंजनी और लाल रंग के धागे बुने हुए थे, और करूबों की कारीगरी की गई थी। फिर उन्होंने बकरों के बालों से एक आवरण तैयार किया और लाल रंग से रंगी हुई मेढ़ों की खालों को ऊपर के आवरण के रूप में जोड़ा।
खम्भों को शीतम नामक लकड़ी से बनाया गया और उन्हें चाँदी के गढ़ों में खड़ा किया गया। तम्बू के अंदर के परदे को सोने के काँटों से लटकाया गया, और पवित्र स्थान को महापवित्र स्थान से अलग करने के लिए एक बारीक बुना हुआ पर्दा बनाया गया, जिस पर करूबों की आकृतियाँ बनी हुई थीं।
वेदी, मेज, दीवट—सभी को परमेश्वर द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार बनाया गया। सोने, चाँदी और काँसे का हर एक सामान बड़ी सावधानी से तैयार किया गया।
### **परमेश्वर की महिमा के लिए समर्पण**
जब सभी कार्य पूरा हो गया, तो कारीगरों ने मूसा को बुलाकर सब कुछ दिखाया। मूसा ने देखा कि हर वस्तु वैसी ही बनी थी, जैसा परमेश्वर ने आज्ञा दी थी। उन्होंने आशीष दी और परमेश्वर का धन्यवाद किया कि उसने लोगों के हृदयों को इतना उदार बनाया और कारीगरों को इतनी कुशलता प्रदान की।
इस प्रकार, इस्राएलियों ने मिलापवाले तम्बू का निर्माण किया, जो परमेश्वर की उपस्थिति का प्रतीक था। यह स्थान उनके बीच में रहकर उनका मार्गदर्शन करने के लिए तैयार हो गया था। सभी ने मिलकर यह कार्य पूरा किया, और परमेश्वर की महिमा उनके बीच विराजमान होने वाली थी।