**ज़कर्याह 7: विश्वास और आज्ञाकारिता की कहानी**
उस समय, जब राजा दारा के शासन के चौथे वर्ष में, ईश्वर का वचन ज़कर्याह नबी के पास पहुँचा। यह किसलेव महीने का चौथा दिन था, और यरूशलेम के लोगों के हृदय में एक गहरा प्रश्न उठ खड़ा हुआ। बेतेल के निवासियों ने शरेज़र और रेगेम-मेलेक को यहूदा और यरूशलेम के पुरोहितों और नबियों के पास भेजा, ताकि वे यहोवा से पूछ सकें:
“क्या हमें अब भी पाँचवें महीने का उपवास करना चाहिए, जैसा हमने इतने वर्षों से किया है?”
यह प्रश्न सुनकर ज़कर्याह के हृदय में ईश्वर की आत्मा ने काम किया। उन्होंने लोगों को उत्तर दिया, परंतु यह केवल एक साधारण उत्तर नहीं था—यह एक गहरी शिक्षा थी, जो उनके विश्वास की जड़ों तक जाती थी।
### **ईश्वर का प्रश्न: क्या तुम वास्तव में मेरे लिए उपवास करते हो?**
ज़कर्याह ने ईश्वर के वचन को सुनाया: “जब तुमने पिछले सत्तर वर्षों में पाँचवें और सातवें महीने में उपवास किया, क्या तुमने वास्तव में मेरे लिए ही किया था? और जब तुमने भोजन किया और पिया, क्या वह तुम्हारे लिए नहीं था? क्या यह वही नहीं है, जो यरूशलेम के आसपास शांति से रहने वाले लोगों के लिए था?”
ईश्वर का यह प्रश्न उनके मन की गहराई में उतर गया। वे केवल रीति-रिवाज़ों का पालन कर रहे थे, परंतु उनका हृदय ईश्वर से दूर था। उपवास और त्याग का उद्देश्य केवल बाहरी दिखावा नहीं, बल्कि आंतरिक परिवर्तन था।
### **पहले के नबियों की चेतावनी**
ज़कर्याह ने उन्हें याद दिलाया कि पहले के नबियों ने क्या कहा था: “यहोवा सर्वशक्तिमान यह कहता है—’न्याय करो, और एक-दूसरे के प्रति दया और करुणा दिखाओ। विधवाओं, अनाथों, परदेशियों और गरीबों के साथ अन्याय मत करो। अपने हृदय में एक-दूसरे के विरुद्ध बुरी योजनाएँ न बनाओ।'”
परंतु उनके पूर्वजों ने इन वचनों को नहीं सुना। उन्होंने अपने कठोर हृदयों से ईश्वर की आवाज़ को अनसुना कर दिया। उनकी गर्दनें लोहे की तरह कड़ी हो गईं, और उन्होंने व्यवस्था और न्याय को ताक पर रख दिया।
### **परिणाम: निर्वासन और पीड़ा**
“इसलिए,” ज़कर्याह ने कहा, “जब यहोवा ने बुलाया, तो उन्होंने नहीं सुना। जब उसने उनकी ओर हाथ बढ़ाया, तो उन्होंने उसे ठुकरा दिया। और इसलिए, सर्वशक्तिमान यहोवा ने क्रोध में भरकर कहा—’जैसे उन्होंने मेरी नहीं सुनी, वैसे ही मैंने भी उनकी पुकार को नहीं सुना। मैंने उन्हें दूर देशों में बिखेर दिया, और उनकी भूमि उजाड़ हो गई।'”
यरूशलेम के विनाश और बंधुआई की याद दिलाकर ज़कर्याह ने उन्हें समझाया कि उनके दुःख का कारण उनकी अवज्ञा थी। ईश्वर ने उनसे सच्ची आराधना और न्यायपूर्ण जीवन की माँग की थी, परंतु उन्होंने केवल बाहरी धार्मिकता को महत्व दिया।
### **नया संदेश: सच्ची आज्ञाकारिता**
अंत में, ज़कर्याह ने उन्हें एक नया मार्ग दिखाया: “इस प्रकार सर्वशक्तिमान यहोवा ने कहा—’सच्चा न्याय करो, एक-दूसरे के प्रति दया और करुणा दिखाओ। अनाथ और विधवा का शोषण मत करो, और अपने हृदय में बुराई न पालो।'”
उपवास और बलिदान तभी सार्थक हैं जब वे सच्चे हृदय से किए जाएँ। ईश्वर बाहरी रीति-रिवाज़ों से प्रसन्न नहीं होता, बल्कि वह उनके हृदय की शुद्धता और समर्पण को देखता है।
### **निष्कर्ष: आज के लिए सीख**
ज़कर्याह के शब्दों ने लोगों के हृदय को छू लिया। उन्होंने समझा कि धर्म केवल रस्मों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवन के हर पहलू में ईश्वर की इच्छा को पूरा करने का नाम है। यदि वे सच्चे मन से उसकी आज्ञाओं का पालन करेंगे, तो उसकी आशीषें उन पर बरसेंगी।
इस प्रकार, ज़कर्याह ने न केवल उनके प्रश्न का उत्तर दिया, बल्कि उन्हें एक गहरी आध्यात्मिक शिक्षा दी—विश्वास की नींव सच्ची आज्ञाकारिता और प्रेम में है, न कि खोखले रीति-रिवाज़ों में।